4 सितम्बर - पितामह तुल्य दादाभाई नौरोजी जी के जन्म दिवस पर हार्दिक बधाइयाँ!


शक्तिशाली देशों के टेªड वार तथा केरेन्सी वार से मानव जाति को बचाने के लिए 
विश्व की एक न्यायपूर्ण एवं लोक कल्याणकारी अर्थव्यवस्था का गठन होना चाहिए।
- प्रदीपजी पाल , लेखक 
    आजादी के पूर्व भारत में अंग्रेजी राज का संचालन इंग्लैण्ड की संसद से किया जा रहा था। ब्रिटिश संसद से ही भारतीयों के लिए नीतियाँ, बजट तथा कानून बनाये जा रहे थे। दादाभाई नौरोजी ऐसे भारतीय थे जो 1892 से 1895 के बीच ब्रिटिश संसद में सांसद बनने वाले पहले एशियाई बने। उस जमाने में इंग्लैण्ड में अंग्रेजों के वोट से एक भारतीय का चुना जाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उनका मानना था कि इंग्लैण्ड की लोकसभा में भारत का संसद हो तो वह भारतीयों की बात को प्रभावशाली ढंग से रख सकेगा।  
    दादा भाई नौरोजी ने धन के निष्कासन से सम्बंधित अपनी किताब ‘पावर्टी एण्ड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ (भारत में गरीबी और गैर-ब्रिटिश शासन) में विस्तार से सच्चाई को दुनिया के सामने रखा। भारत का अथाह धन इंग्लैंड जा रहा था। धन का यह अपार निष्कासन भारत को अन्दर-ही-अन्दर कमजोर बनाते जा रहा था। दादा भाई ने ब्रिटिश संसद के सांसद रहते हुए ब्रिटेन में भारत के विरोध को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। दादा भाई नौरोजी ने भारत की लूट के संबंध में ब्रिटिश संसद में ड्रेन थ्योरी पेश की। इस ड्रेन थ्योरी में भारत से लूटे हुए धन को ब्रिटेन ले जाने का विस्तार से उल्लेख था। 
    ब्रिटिश शासक भारतीयों को बलपूर्वक बहुत-सी वस्तुएँ यूरोप (ब्रिटेन छोड़कर) को निर्यात के लिए बाध्य करते थे। इस निर्यात से अंग्रेजी शासन की बड़ी मात्रा में आमदनी होती थी क्योंकि भारत से अधिक से अधिक माल निर्यात होता था। इस अतिरिक्त आय से ही अंग्रेज व्यापारी ढेर सारा माल खरीदकर उसे इंग्लैंड और दूसरी जगहों में भेज देते थे। इस प्रकार अंग्रेज दोनों तरफ से भारी धन प्राप्त कर रहे थे। इन व्यापारों से भारत को कोई भी धन प्राप्त नहीं होता था। साथ ही साथ भारत से इंग्लैंड जाने वाले अंग्रेज भी अपने साथ बहुत सारा धन ले जाते थे। ईष्ट इण्डिया कंपनी के अधिकारी-कर्मचारी वेतन, भत्ते, पेंशन आदि के रूप में पर्याप्त धन इकट्ठा कर इंग्लैंड ले जाते थे। यह धन न केवल सामान के रूप में था, बल्कि धातु (सोना, चाँदी) के रूप में भी पर्याप्त धन भारत से इंग्लैंड भेजा गया। 
    इस धन के निष्कासन को इंग्लैंड एक “अप्रत्यक्ष उपहार” समझकर हर वर्ष भारत से पूरे अधिकार के साथ ग्रहण करता था। भारत से कितना धन इंग्लैंड ले जाया गया, उसका कोई हिसाब नहीं है क्योंकि सरकारी आँकड़ांे (ब्रिटिश आँकड़ों) के अनुसार बहुत कम धन-राशि भारत से ले जाया गया। फिर भी इस धन के निष्कासन के चलते भारत की अर्थव्यवस्था पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा। 
    दादाभाई नौरोजी ने इसे “अंग्रेजों द्वारा भारत का रक्त चूसने” की संज्ञा दी। कई राष्ट्रवादी इतिहासकारों और व्यक्तियों ने भी अंग्रेजों की इस नीति की कठोर आलोचना की है। इतिहासकारों का एक वर्ग जो (साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रभावित) था, इस बात से इनकार करता है कि अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक दोहन किया। वे यहाँ तक सोचते हैं कि इंग्लैंड को जो भी धन प्राप्त हुआ वह भारत की सेवा करने के बदले प्राप्त हुआ। उनका विचार था कि भारत में उत्तम प्रशासनिक व्यवस्था, कानून और न्याय की स्थापना के बदले ही इंग्लैंड भारत से धन प्राप्त करता था। 
    यह सब जानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक शोषण किया। वे भारत आये ही क्यों थे? क्या उन्होंने दूसरे देशों की सेवा करने का बीड़ा उठाया था? सरकारी आर्थिक नीतियों का बहाना बना कर धन का निष्कासन कर भारत को गरीब बना दिया गया। यह बात इससे स्पष्ट हो जाती है कि 19वीं-20वीं शताब्दी में भारत में कई अकाल पड़े जिनमें लाखों व्यक्तियों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। राजस्व का बहुत ही कम भाग अकाल के पीड़ितों पर व्यय किया जाता था। भूखे गांवों में खाना नहीं पहुँचाया जाता था। अंग्रेजों के इस कुकृत्य से साफ-साफ पता चलता है कि वे भारत की सेवा नहीं वरन् भारत का बुरी तरह आर्थिक दोहन करने आये थे। यह दोहन यह लगभग 200 वर्षों तक चलता रहा। 15 अगस्त 1947 को देशवासियों ने अपने पौरूष तथा बलिदान से आजादी को हासिल किया। 
    अन्यायपूर्ण अंग्रेजी शासन का इतिहास शक्तिशाली, संकुचित तथा लालची देशों द्वारा पुनः दोहराया जा रहा है। अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वार के बीच विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक श्री राबर्टो एजवेडो ने यह सच्चाई उजागर  की। उनके अनुसार बड़े स्तर पर ट्रेड वार का वैश्विक आर्थिक विकास पर गंभीर असर पड़ रहा है। अमेरिका अपने आपको सुपर पावर बनाने के लिये सबको तबह करेगा। श्री एजवेडो ने कहा कि बड़े स्तर पर ट्रेड वार से वैश्विक व्यापार सहयोग प्रभावित होगा। अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव के बीच श्री एजवेडो ने कहा, ये परिस्थितियाँ स्पष्ट दिख रही हैं। तनाव बढ़ने से स्थायीत्व, रोजगार और जिस तरह का विकास आज हम देख रहे हैं, उस पर खतरा होगा। श्री एजवेडो ने कहा कि इस तरह की स्थिति में कोई विजेता नहीं होगा और हर क्षेत्र पर इसका बुरा असर पड़ेगा। उन्होंने कहा कि विश्व व्यापार संगठन ऐसा कभी नहीं होने देगा। 
    हाल ही के एक समाचार के अनुसार चीन और अमेरिका के बीच चल रहे व्यापार युद्ध ने अब अघोषित मुद्रा युद्ध का रूप ले लिया है। चीन के सेंट्रल बैंक ने डालर के मुकाबले युआन की कीमत 7 के रिकार्ड स्तर तक गिर जाने दी। इससे दुनिया भर के मुद्रा बाजार में उथल-पुथल मच गई है। जाहिर है, चीन ने एकतरफा व्यापार युद्ध वाले अमेरिकी रवैये से तंग आकर मुद्रा को अपना हथियार बनाया है। साथ ही उसकी कंपनियों ने अमेरिकी कृषि उत्पादों की खरीद भी रोक दी है। ये कदम चीन ने तब उठाए जब अमेरिकी राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रंप ने व्यापार वार्ता की दिशा ही गलत बताते हुए चीन से आयातित 300 अरब डालर के उत्पादों पर दस फीसदी शुल्क लगाने की घोषणा की। ये दरें 1 सितंबर 2019 से लागू हो गयी है। चीन मुख्यतः एक निर्यातक देश है इसलिए युआन की कीमत गिरने का उस पर कम प्रभाव पड़ेगा लेकिन चीनी माल का आयात करने वाले तमाम मुल्क चीनी माल और भी सस्ता हो जाने से परेशानी में पड़ेंगे। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि चीन के खिलाफ उठाए जा रहे अमेरिकी कदमों से अमेरिका सहित अन्य देशों के व्यवसायियों, श्रमिकों और उपभोक्ताओं की परेशानी बढ़ेगी और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ेगा लेकिन ट्रंप और उनके समर्थकों को लगता है कि थोड़ा नुकसान सहकर भी अगर चीन को कुछ जरूरी मामलों में पीछे हटने पर राजी किया जा सका तो आगे चलकर अमेरिका को इसका फायदा मिलेगा। दोनों बड़ी ताकतों की यह लड़ाई दुनिया भर में आर्थिक मंदी के रूप में दिखाई दे रही है। 
    भारत में भी लोगों की खरीदने की शक्ति घट रही है। इसके चलते उद्योगों का पहिया थम रहा है। कंपनियों ने लागत घटाने के लिए छंटनी का सहारा लेना शुरू कर दिया। आर्थिक ग्रोथ सुस्त पड़ती नजर आ रही है। देश का आटो सेक्टर रिवर्स गियर में चला गया है। आटो इंडस्ट्री में लगातार नौ महीने से बिक्री में गिरावट दर्ज हो रही है।
    21वीं सदी के आपसी परामर्श के युग में विश्व का संचालन ट्रेड वाॅर, करेन्सी वाॅर, परमाणु शस्त्रों की होड़ से नहीं किया जाना चाहिए वरन् प्रभावशाली अन्तर्राष्ट्रीय कानून से होना चाहिए। संसार भर में जनता का टैक्स का पैसा वेलफेयर (जन कल्याण) में लगने की बजाय वाॅरफेयर (युद्ध की तैयारी) में लग रहा है। शक्तिशाली देशों की देखादेखी विश्व के अत्यधिक गरीब देश भी अपनी जनता की बुनियादी आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा तथा स्वास्थ्य की सुविधायें उपलब्ध करने की बजाय अपने रक्षा बजट प्रतिवर्ष बढ़ा रहे हैं। वर्तमान में विश्व भर में अधिकांश देशों में देश स्तर पर तो लोकतंत्र तथा कानून का राज है लेकिन विश्व स्तर पर लोकतंत्र न होने के कारण जंगल राज है। 
    वर्तमान में भारत के सरकारी खजाने से पैसा गांव के प्रधान तथा डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर योजना के अन्तर्गत 439 योजनाओं के माध्यम से पात्र व्यक्ति तक आ रहा है। भारत सरकार को बस एक धक्का लगाकर राष्ट्रीय आय की कुछ धनराशि सीधे प्रत्येक वोटर के खाते तक पहुंचाना है। वोटरशिप स्कीम के जन्मदाता युवा श्री भरत गांधी का कहना है कि अति आधुनिक मशीनीकरण तथा कम्प्यूटर के युग में प्रत्येेक बेरोजगार को नौकरी देना सम्भव नहीं है। बेरोजगार युवा परिवार के लिए एक बोझ की आत्मग्लानि में जीता है। उदाहरण के लिए एक पिता की चार संतानों में भैस का दूध तो बांटा जा सकता है लेकिन भैस नहीं बांटी जा सकती। इसी प्रकार धरती माता की प्रत्येक संतान में पैसा तो बांटा जा सकता है लेकिन बराबर से जमीन नहीं बांटी जा सकती। भारतीय संविधान के निर्माता डा. अम्बेडकर ने प्रत्येक नागरिक को वोट डालकर सरकार बनाने का संवैधानिक अधिकार समान रूप प्रदान कर राजनैतिक आजादी दिलायी। देश के एक गरीब व्यक्ति तथा सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी को वोट डालने का एक समान अधिकार प्राप्त है। डा. अम्बेडकर ने आर्थिक आजादी के मामले में संविधान लिखते समय बड़ी भूल कर दी। इस कारण से देश में एक तरफ गरीबी की गहरी खाई है तो दूसरी ओर अमीरी आसमान छू रही है। 
    संविधान की इस भारी भूल को सुधारने के लिए राजनीति सुधारक श्री भरत गांधी अनेक वर्षों से वोटरशिप का मामला भारतीय लोकसभा में 135 सांसदों की लिखित सहमति से उठा रहे हैं लेकिन अफसोस वोटर द्वारा चुनी तत्कालीन लोकसभा ने जनता हित के इस महत्वपूर्ण मामले पर लोक सभा में अब तक बहस नहीं करायी। भारत सरकार ने वोटरशिप के मामले में संविधान विशेषज्ञों तथा अर्थशास्त्रियों की राय जानना चाही। इस पर प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ डा. सुभाष सी. कश्यप ने इसे वोटर का संवैधानिक अधिकार की दृष्टि से उचित ठहराते हुए अपनी सहमति व्यक्त की। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और आइआइएम बेंगलुरू में प्रोफेसर रह चुके डाॅ. भरत झुनझुनवाला का कहना है कि यूनिवर्सल बेसिक योजना के अन्र्तगत देश के हर नागरिक को जीविका के लिए निश्चित रकम हर माह सरकार द्वारा दी जानी चाहिए। आज पूरे विश्व में रोजगार घट रहे हैं। आटोमैटिक मशीनों ने मजदूरों के तथा कंप्यूटरों ने शिक्षितों के रोजगार छीन लिए हैं। जनकल्याण की अधकचरी योजनाओं को बंद कर दिया जाए तो यूनिवर्सल बेसिक इनकम अर्थात वोटरशिप के लिए वर्तमान बजट में ही रकम उपलब्ध हो जायेगी। 
    श्री एन.के. सिंह, पूर्व सांसद और पूर्व केन्द्रीय सचिव का कहना है कि बिना शर्त सभी को दी जाने वाली आमदनी का आकर्षण बहुत बड़ा है, इसमें एक नैतिक दबाव है, एक आर्थिक तर्क है और यह गरीबी को तत्काल खत्म करने का रास्ता है। प्रसिद्ध लेखिका सुश्री रीतिका खेड़ा का कहना है कि भारत में सार्वभौमिक बुनियादी आय (यूनिवर्सल बेसिक इनकम या यूबीआई) जिसमें सबको नकद राशि दी जाएगी, पर चर्चा जोरों से होने लगी है। यूनिवर्सल का मतलब है अमीर-गरीब को छांटने का मुश्किल काम करने की कोई जरूरत नहीं और अगर यूबीआई नकद में दी जाए तो पहले से परेशान सरकारी तंत्र के लिए प्रशासनिक कार्य भी कम हो जाता है। संविधान विशेषज्ञों तथा अर्थशास्त्रियों की राय भी वोटरशिप के पक्ष है। इस आधार पर जनता के भारी समर्थन से दूसरी बार चुनी गयी लोकप्रिय केन्द्र सरकार को वोटरशिप जैसी लोक कल्याकारी योजना को लागू करने के लिए अब और विलम्ब नहीं करना चाहिए। 
    विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत को गरीब और अमीर प्रत्येक वोटर के लिए भावी वोटरशिप योजना को जल्द से जल्द लागू करके विश्व के समक्ष आर्थिक आजादी की मिसाल प्रस्तुत करना चाहिए। हमारा विश्वास है कि धरती को व्यापार युद्ध, मुद्रा युद्ध, ड्रग्स, घातक हथियार, आतंकवाद तथा मानव तस्करी जैसे कुख्यात तथा गैरकानूनी व्यापारों से मुक्ति का मार्ग भावी वोटरशिप योजना से अवश्य प्रशस्त होगा। सारा विश्व भारत में लोकतंत्र के विकास तथा सफलता की उच्चतम अवस्था का अनुकरण करने के लिए भावी वोटरशिप योजना को अपने-अपने देश में लागू करेगा। इस प्रकार मानव जीवन की आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, यहाँ तक कि सामाजिक, राजनैतिक, वैश्विक समस्याओं के लिए समाधान के नए द्वार खुलेंगे। भारतीय संस्कृति के आदर्श वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना साकार होगी। राह भटकी मानव जाति को पुनः विशाल हृदय के दादाभाई नौरोजी जैसे साहसी तथा संवेदनशील पिता की आवश्यकता है जो अपनी समस्त मानव संतानों को एक पिता की दृष्टि से भरा संरक्षण, सुरक्षा तथा बराबरी के साथ जीने का अधिकार दिला सके। 
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