तर कभी कृष्ण की कृपा जाते !

(मधुगीति २००२१२ यग्रसा)

तर कभी कृष्ण की कृपा जाते, 
वर कभी बोध व्यथा से पाते;
पाण्डव धीरे धीरे जग पाते, 
सुषुप्ति युगों की रहे होते!

स्वार्थ में सने घुने जो होते, 
उन्हें पहचान कहाँ वे पाते;
सात्विकी सहजता समाए वे, 
पातकी पात्र कहाँ लख पाते !

भाव जड़ता को कहाँ तर पाते, 
कहाँ गाण्डीव उठा लड़ पाते;
विराट रूप बिना वे देखे, 
युद्ध कब कौरवों से कर पाते ! 

साथ आपस में वे कहाँ रहते, 
शिष्ट दुष्टों की ओर हो जाते;
चाल उनकी वे भाँप कब पाते, 
कितने अभिमन्यु राह खो देते !

आत्म उन्मुक्त तुरत कब होती, 
बंधनों कितने वह रही होती;
प्रकृति पाशों से सुर सुधी होते, 
‘मधु’ के प्रभु की ध्वनि तभी सुनते ! 

✍???? गोपाल बघेल ‘मधु’ 

टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा
www.GopalBaghelMadhu.com

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